अपना धर्म हम कर लेंगे, आप तो अपना धर्म निभाओ

-अन्ना दुराई

आशय नेताओं को भला बूरा कहने का नहीं, उन्हें सोचने के लिए झकझोरने का है। कुंभ में आस्था की डूबकी का आँकड़ा 60 करोड़ तक पहुँच गया है। एक समय था जब 5-7 करोड़ में ही हिसाब किताब होने लगा था, लेकिन अब गुणा भाग बंद हो गया है। जिसे देखो वो अपनी तरफ से 2-5 करोड़ तो ऐसे बढ़ा देता है मानों इसके आगे सब बेमानी है। सब धर्म में राजनीति के घालमेल का परिणाम है। कुंभ स्नान का आँकड़ा 10 करोड़ हो या 100 करोड़, मानों धर्म के मर्म को हमारे राजनेताओें ने ही समझा है। तय है, धर्म पहले से कहीं ज्यादा राजनेताओें की शरणस्थली बनकर उभरा है। एक होड़ सी मची है, अपने को धार्मिक दिखाने की। माहौल ऐसा बना दिया गया है कि इससे अच्छा कोई रोजगार नहीं, यह सोच कुछ युवकों ने तो प्रयागराज में स्टार्टअप शुरू किया है। जो नहीं आ पाए, वे ग्यारह सौ रूपये में अपना फोटो भेजकर डिजीटल डुबकी लगा सकते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि इन दिनों धर्म को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करना एक फैशन सा बन गया है। इसमें महती भूमिका हमारे राजनेताओें की है जो अपने मूल कामकाज की कमियों पर पर्दा डालने के लिए धर्म को एक साधन के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। वास्तव में धर्म का सार तत्व अपने स्वभाव में अपने आचरण में ढालने से है लेकिन यहाँ तो हमारे राजनेताओें ने इसे अपनी राजनीति को चमकाने का हथियार मात्र बना लिया है।

देश में इन दिनों धरम में राजनीति का करम कहर ढा रहा है। इतना धर्म हो रहा है, ये जा कहाँ रहा है पता नहीं। सुबह से शाम तक नेतागण और यहाँ तक कि आजकल अधिकारी भी मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर, गुरूद्वारे में नजर आते हैं। वे भगवान के सम्मुख होते हैं और कैमरे जनता को उनके दर्शन कराते हैं। सुबह भजन कीर्तन, दोपहर में हवन पूजन, शाम को कथा प्रवचन और रात में आरती भंडारे में समय गुजर जाता है। कोई घर घर रूद्राक्ष बांटता है तो कोई गंगाजल लाकर छिड़कता है। कोई धार्मिक यात्राएँ कराता है तो कोई रक्षा सूत्र बाँधता है। अपना धर्म अपनी आस्था के कोई मायने नहीं। नेतागण जिसे सही ठहरा दे, वही धर्म है। ऐसा लगता है मानों नेतागण धर्म को थोप रहे हैं। चौराहे चौराहे पर रोक रोककर जबरदस्ती प्रसादी बांटना तो यही दर्शाता है। लेने वाले का मन हो न हो, देने वाले की भारी भरकम आँखें डर जरूर पैदा कर देती है। ऐसा लगने लगा है मानो जनता को धर्म कराने के लिए ही नेताओं का उदय हुआ है। मालिक का मालिक कौन। वाकई नेतागण धर्म में अपने राजनीतिक फायदे को खोज रहे हैं और जनता सिर्फ बेवकूफ और बेवकूफ बन रही है। राजनीतिक सुझबुझ जहां दिखाना है, वहाँ नजर नहीं आती। जनता की मूलभूत सुविधाओं से जुड़े मुद्दे वहीं के वहीं खड़े रहते हैं। लोकतंत्र की एक खूबसूरत परिभाषा यह भी है कि सत्ता में रहो तो काम करो और विपक्ष में रहो तो संघर्ष। लेकिन पक्ष हो या विपक्ष सभी अपने आपको केवल सबसे बड़ा धार्मिक साबित करने में जुटे रहते हैं। जनहित से जुड़े हर मोर्चे पर अपनी विफलताओं को धर्म के आवरण से ढक दिया जाता है। एक नकेल जरूरी है। जनता को एक कदम आगे बढ़कर नेताओं को आईना दिखाना चाहिए। जिसलिए जिताया, उनसे वो लाभ हासिल करना चाहिए। जन समस्याओं से निजात दिलाकर नेताओं को भी स्वयं असली धर्म निभाना चाहिए।

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