हर हाल में पिसता और पिटता तो आम आदमी ही है !

-अन्ना दुराई

हर हाल में पिसता और पिटता तो आम आदमी ही है, मैं अपनी इन्हीं पंक्तियों को आगे बढ़ा रहा हूँ। कहीं भी कोई ठोक देता है। कहीं भी कोई बजा जाता है। जगह जगह अपमानित होना मेरा धर्म है। दिन भर सभी के सामने गिड़गिड़ाना मेरी नियती है। मैं हूँ आम आदमी। वाकई एक आम आदमी के हाल कुछ ऐसे ही हैं। वीआईपी कल्चर इतना हावी हो गया है कि सेवा के लिए राजनीति का दामन थामने वाला सिर पर बैठता है। तनख्वाह पाने वाली अफसरशाही जनता को जानवरों की तरह हकालती है। कोई वीआईपी गुजरने वाला हो तो पुलिस प्रशासन की दादागिरी अलग ही नजर आती है। थोड़ा सा कोई आगे पिछे हो जाए तो डंडे की फटकार पड़ती है। गालियों की बौछार तो सहना ही पड़ती है। बेचारे आदमी का ही क्या है। नेताओं के काफिले में चलने वाली गाड़ियों की गिनती करके ही खुश हो लेता है। दबे छिपे अंदाज में नेताओं के इर्द-गिर्द चलने वाले सुरक्षाकर्मियों के तानों को झेलते हुए, उन्हें गुजरता हुआ निहारता है। घंटो ट्रैफिक में उलझता है। समझ नहीं आता तब के बाअदब बामुलाहिजा खबरदार, महाराजा पधार रहे हैं वाले डायलॉग और आज की परिस्थितियों में क्या फर्क है।

अपने छोटे छोटे कार्यों के लिए आम आदमी की लाचारी देखते ही बनती है। भिखारियों की तरह बेचारा सरकारी दफ़्तरों के चक्कर लगाता है। अधिकारी के मूड पर सबकुछ डिपेंड करता है। मन हो तो बात करे, मन ना हो तो हड़का दे। कभी छुट्टी पर, कभी यहाँ वहाँ तो कहीं टेबल पर नहीं। एक मिल जाए तो दूसरा आज नहीं। इसी उधेड़बुन में दिन गुजर जाता है। अधिकारी निगाह उठाकर देख भर ले, उसी में खुशी ढूँढ लेता है। नियम कायदे वाले काम के लिए भी दाम चुकाता है। लल्लो चप्पो करता है। उफ करने की ताकत नहीं, घर आकर मिठाई भी बाँटता है कि मेरा काम हो गया। कभी कभी सोचता हूँ कि कई सरकारी अधिकारी कर्मचारियों की तनख्वाह बंद भी कर दें तो क्या वे नौकरी से इस्तीफ़ा दे देंगे ?

अब आता हूँ सड़कों पर। रोज घर से निकलता हूँ तो मन में डर बना रहता है कि कब कहाँ धरा जाऊँ और गाड़ी साईड में लगाकर मोटरसाइकिल पर बैठे साहब की ओर इशारा कर हकेल दिया जाऊँ। मेरे पास लायसेंस है, रजिस्ट्रेशन है, इंश्योरेंस है। शराब नहीं पीता हूँ। लेकिन चौराहे चौराहे पर कभी भी कहीं भी किसी न किसी रूप में इज्जत उतरती है। कभी कभी टारगेट पूरा करने के लिए गली गूचों से भी गाड़ियाँ उठा ली जाती है। आदमी तड़पने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता। कुल मिलाकर आजकल जो थोड़ा बहुत भी काम होता है, वह सिर्फ फोटो फाटों के लिए होता है। नेता तो ठीक आजकल अधिकारी भी कैमरामैनों के साथ मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं। स्वयं भगवान के दर्शन करते हैं और फिर जनता को दर्शन देते हैं। सही कहा है, मालिक का मालिक कौन। भय लगता है, मैं हूँ आम आदमी और मेरी मुख्यमंत्रीजी से पहचान नहीं। इंतजार है जब आम आदमी का जलील होना बंद होगा। नेता हो या अधिकारी, अपनी व्यवहार कुशलता और कार्यशैली से जन जन को अपने सिर आँखों पर बिठाएगा।

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